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Saat Naatak | सात नाटक

Saat Naatak | सात नाटक

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महेश एलकुंचवार के सभी नाटक आज भी समकालीन और सांगत हैं, क्योंकि वह ज़िंदगी के मूलभूत सवालों से जूझते हैं, लगातार सवाल पूछते हैं, लगातार खोज करते हैं। वह अपने पात्रों को इतने प्रेम और सहजता से रचते हैं कि हम हर एक से जुड़ाव महसूस करने लगते हैं, उनमें अपनी छवि देखने लगते हैं। उनके लेखन में एक तरह की ईमानदारी नज़र आती है—कोई समझौता नहीं, कोई दावा नहीं, कोई दिखावा नहीं। यही बात शायद उनको एक बहुत महत्वपूर्ण नाटककार बनाती है। मंच की गतिविधियों के लिए महेश अपने पाठ, अपनी दृश्य-योजना में बहुत जगह देते हैं, बहुत कुछ अनकहा छोड़ देते हैं, जहाँ अभिनेता उसके उप-पाठ (सबटेक्स्ट) को खेल सकें, उस क्षण के विभिन्न भावों, प्रतिक्रियाओं और संभावनाओं को दर्शा सकें। ख़ास बात यह है कि वह अपने अभिनेता और उसकी कल्पनाशीलता पर विश्वास करते हैं। मंच पर उनके नाटकों की सफलता का यह एक बहुत बड़ा कारण है।

महेश एलकुंचवार के इस संग्रह के नाटकों का चयन उनके लेखन के विभिन्न चरणों से होने के कारण उनके सरोकारों की झलक देने के साथ-साथ, बतौर नाटककार उनकी लेखकीय यात्रा का अंदाज़ा भी बख़ूबी देता है। हिंदी क्षेत्र में शायद एलकुंचवार के नाटक सबसे ज़्यादा खेले गए हैं। पार्टी के अलावा, इन सभी नाटकों का अनुवाद श्री वसंत देव ने किया है। हम सभी भली-भाँति जानते हैं कि महत्वपूर्ण मराठी नाटकों को हिंदी में उपलब्ध कराने में अगर किसी एक व्यक्‍ति का हाथ है तो वह हैं श्री वसंत देव। मराठी के साथ-साथ हिंदी के मुहावरे पर उनकी पकड़ इतनी कमाल की है कि हर नाटक की भाषाई भिन्नता को पकड़कर उसे हिंदी के शहरी, आँचलिक, औपचारिक, अनौपचारिक, हर तरह के नाटक में सटीक तौर पर प्रस्तुत करते रहे हैं।

मुझे यक़ीन ही नहीं, पूरा विश्वास है कि हर तरह के पाठक, शोधकर्ता और रंगकर्मियों के लिए यह संग्रह बहुत ही मूल्यवान साबित होगा।

कीर्ति जैन


महेश एलकुंचवार ने ऐसे नाटकों से शुरुआत की जो आत्मतुष्ट मध्यवर्गीय दर्शकों को झकझोरने के लिए लिखे गए थे। आगे चलकर वह यथार्थवाद के चुके हुए ज़खीरे को खंगालने लगे और तब एक उत्कृष्ट कृति, विरासत, के साथ सामने आए, जिसमें उन्होंने डगमगाते सामंती भारत की पृष्ठभूमि पर परिवार के विघटन की पड़ताल की। अपने बाद के नाटकों में यथार्थवाद को पीछे छोड़कर एलकुंचवार मौन की तलाश में जुट जाते हैं, आधे-अधूरे वाक्यांशों तथा रोज़मर्रा की घिसी-पिटी लोकोक्तियों को खोलते हैं और सावधानीपूर्वक या अनजाने में ऐसा विन्यास निर्मित करते हैं जो मानव मन के धुंधले और अंदरूनी हिस्सों को एक साथ छिपाता और उघाड़ता है। संवाद के लिए तरसते रहने के बावजूद, उनके पात्र एक-दूसरे से दूर हो जाते हैं। अपनी खोज में व्यग्र और अपनी ईमानदारी में अडिग एलकुंचवार अपनी भावनात्मक व्यापकता, बौद्धिक दृढ़ता और सूक्ष्मता के लिए आधुनिक भारतीय रंगमंच में अद्वितीय हैं।

गिरीश कर्नाड
पद्म भूषण एवं ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित


महेश एलकुंचवार के लिए रंगमंच जीवन के साथ आबद्ध है, जिसके ज़रिए कभी वह बेचैनी से सवाल करता है और कभी कुतूहल जगाने वाले विषयों पर चिंतन करता है। सीमाओं को विस्तारित करने की अपनी खोज में महेश मूलतः एक पुनर्जागरण के मानस वाला नाटककार है। संस्तरित रिश्तों को संभालने और गढ़ने में आरक्त क्षण महेश के पहले सचेत प्रयासों में से एक है — एक ऐसा चरण जो उसके पहले के दौर से भिन्न है, जब वह विस्तारीकरण के साथ प्रयोग कर रहा था और थिएटर के लिए अपना ही मुहावरा रचने की खोज में था। कई मायनों में होली उसका सबसे अग्रणी प्रयोग बना, और आज तक बना हुआ है। महेश के नाटक आज भी प्रासंगिक और रोमांचक बने हुए हैं और नई पीढ़ी का ध्यान आकर्षित करने की मांग करते हैं।

विजया मेहता
रंगमंच निदेशक

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भारतीय रंगमंच के महान नाटककार महेश एलकुंचवार ने अपने नाटकों में नाटकीय अभिव्यक्ति के कई रूपों का उपयोग करते हुए यथार्थवादी, प्रतीकात्मक एवं अभिव्यक्तिवादी शैली में रचना की है। उन्हें एक जीवनी नाटककार के रूप में देखा जाता है। उन्होंने जन्म से मृत्यु तक विभिन्न विषयों को प्रस्तुत किया है। वे पाँच दशकों से भी अधिक समय से आधुनिक भारतीय रंगमंच को प्रभावित कर रहे है। 1967 में प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका सत्यकथा में अपने एकांकी नाटक सुलतान के प्रकाशन के बाद महेश एलकुंचवार थिएटर की सुर्खियों में आए। सुप्रसिद्ध निर्देशक विजया मेहता ने उनके नाटकों को मंच पर लाया। उन्होंने 1969 और 1970 में होली और सुलतान सहित रंगायन के लिए कई नाटकों का निर्देशन किया। एलकुंचवार के नाटकों पर होली, रक्तपुष्प, पार्टी जैसी कई व्यावसायिक फ़िल्में आईं।

महेश एलकुंचवार के नाटकों का अंग्रेज़ी, फ्रेंच और जर्मन सहित कई भारतीय और पश्चिमी भाषाओं में अनुवाद किया गया है। वे संगीत नाटक अकादमी के फ़ेलो हैं और उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, कालिदास सम्मान, ब्रिटनगम फ़ेलोशिप (विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, यू.एस.ए.) और होमी भाभा फ़ेलोशिप सहित कई पुरस्कार प्राप्त हुर है।

अनुवादक का परिचय

वसंत देव
(1929-1996) की ख्याति का मुख्य आधार उनके द्वारा हिंदी में मराठी नाटकों के किए गए अनुवाद हैं। उन्होंने आचार्य अत्रे, वसंत कानेटकर, पु.शि. रेगे, विजय तेंडुलकर, महेश एलकुंचवार, सतीश आलेकर आदि नाटककारों के नाटकों के अनुवाद किए हैं, जिनमें अंजी, कन्यादान, कमला, गिद्ध, घासीराम कोतवाल, जात ही पूछो साधु की, बेबी, मीता की कहानी, सफ़र, हत्तेरी क़िस्मत (विजय तेंडुलकर), अंधार यात्रा, उध्वस्त धर्मशाला (गोविंद देशपांडे), जाग उठा रायगढ़ (वसंत कानेटकर), विरासत, होली, आरक्त क्षण, प्रतिबिंब, आत्मकथा (महेश एलकुंचवार) तथा महानिर्वाण (सतीश आलेकर) आदि प्रमुख हैं। सहज और चुस्त भाषा तथा स्वाभाविक अभिव्यक्ति के कारण वसंत देव के अनुवाद अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं और उन्हें अनुवादक के रूप में यश प्राप्त हुआ है।

वे मुंबई के पार्ले कॉलेज में हिंदी के शिक्षाविद् थे। उन्होंने 1980 के दशक तक हिंदी समानांतर सिनेमा में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी और महेश भट्ट जैसे निर्देशकों के साथ काम किया। उन्हें सुरेश वाडकर द्वारा गाए गए ‘सांझ ढले गगन तले’ और गिरीश कर्नाड द्वारा निर्देशित उत्सव (1984) में लता मंगेशकर और आशा भोसले के युगल गीत ‘मन क्यों बहका’ के लिए जाना जाता है। उन्होंने मराठी में कई नाटक और कविताएँ भी लिखीं।

32वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों में उन्होंने सारांश (1984) के लिए सर्वश्रेष्ठ गीत का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीता। इसके बाद, 33वें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में उन्हें उत्सव के गीत ‘मन क्यों बहका’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ। 1980 के दशक में, टेलीविज़न धारावाहिक भारत एक खोज (डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया) के लिए निर्देशक श्याम बेनेगल ने वसंत देव से ऋग्वेद के संस्कृत भजनों का हिंदी में अनुवाद करने के लिए कहा, जिन्हें वनराज भाटिया ने संगीतबद्ध किया।

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